अक्सर आप लोगों को खुजलाते देखते होंगे। खुद भी दिन में कई बार ऐसा करते होंगे। कभी आपने सोचा कि आखिर खुजली क्यों होती है? क्यों अपनी ही देह पर खरोंचने का मन होता है?इन सवालों के जवाब ढूंढें, उससे पहले आपको एक अमेरिकी वैज्ञानिक जेआर ट्रेवर का किस्सा सुनाते हैं। अपने 40वें जन्मदिन पर ट्रेवर को अपने शरीर में खुजली महसूस हुई।
अगले 40 साल उन्होंने इसकी वजह ढूंढने, इसका इलाज करने में गुजार दिए। वह दुनिया से चली गईं, मगर खुजली का मर्ज नहीं गया। उन्होंने खुजलाते-खुजलाते अपनी चमडी तक उधेड ली। इसके टुकडे बडे-बडे वैज्ञानिकों को भेजे, ताकि बीमारी पता चल सके। यहां तक कि अपनी खुजली पर रिसर्च पेपर तक लिख डाला।
उन्हें शक था कि खुजली की यह बीमारी एक घुन की वजह से हुई। एक डॉक्टर ने उन्हें मनोवैज्ञानिक के पास जाने की सलाह दी। मगर ट्रेवर ने उस वैज्ञानिक को भी गच्चा दे दिया। वह मर गईं, मगर बीमारी नहीं मरी। आज हमें पता है कि ट्रेवर को किसी घुन ने परेशान नहीं किया था। उन्हें दिमागी बीमारी थी। जिसका नाम है 'डेलुजरी पैरासिटोसिस'। यह है जेहन में किसी बीमारी का वहम।
खुजली से कमोवेश हर इंसान जूझता है
कई
बार ये आमतौर पर होने वाली खुजली से हो जाता है और ट्रेवर जैसे लोगों में
मामला गंभीर हो जाता है। मगर मसला यह है कि खुजली से धरती का कमोबेश हर
इंसान जूझता है। आज साइंस ने इतनी तरक्की कर ली है। मगर, मजे की बात यह है
कि खुजली की जो परिभाषा आज चलन में है, वह आज से कोई साढे तीन सौ बरस पहले
एक जर्मन डॉक्टर सैमुअल हैफेनरेफर ने तय की थी।
उन्होंने लिखा था खुजली शरीर को महसूस होने वाली ऐसी सनसनी है, जो खुजलाने से शांत होती है। यही परिभाषा आज भी चलन में है। दिक्कत यह है कि इससे खुजली को लेकर हमारी समझ जरा भी बेहतर नहीं होती।वैज्ञानिक नजरिए से देखें, तो खुजली और दर्द में ज्यादा फर्क नहीं। असल में हमारी त्वचा में ऐसी नसों का जाल बिछा है जो हमारी रीढ की हड्डी और उसके जरिए दिमाग से जुडी हैं। इन्हें तंत्रिकाएं कहते हैं।
इनका काम हमारे शरीर पर आने वाले खतरे से दिमाग को आगाह करना होता है। जब यह खतरा मामूली होता है, तो इससे खुजली का अहसास होता है। मगर खतरा बडा हुआ, तो दर्द महसूस होता है। वैसे कुछ वैज्ञानिक यह भी कहते हैं कि दर्द और खुजली का अहसास कराने वाली तंत्रिकाएं अलग-अलग होती हैं।
उन्होंने लिखा था खुजली शरीर को महसूस होने वाली ऐसी सनसनी है, जो खुजलाने से शांत होती है। यही परिभाषा आज भी चलन में है। दिक्कत यह है कि इससे खुजली को लेकर हमारी समझ जरा भी बेहतर नहीं होती।वैज्ञानिक नजरिए से देखें, तो खुजली और दर्द में ज्यादा फर्क नहीं। असल में हमारी त्वचा में ऐसी नसों का जाल बिछा है जो हमारी रीढ की हड्डी और उसके जरिए दिमाग से जुडी हैं। इन्हें तंत्रिकाएं कहते हैं।
इनका काम हमारे शरीर पर आने वाले खतरे से दिमाग को आगाह करना होता है। जब यह खतरा मामूली होता है, तो इससे खुजली का अहसास होता है। मगर खतरा बडा हुआ, तो दर्द महसूस होता है। वैसे कुछ वैज्ञानिक यह भी कहते हैं कि दर्द और खुजली का अहसास कराने वाली तंत्रिकाएं अलग-अलग होती हैं।
खुजली की है कई वजहें
खुजली
हमें कई वजह से हो सकती है। मसलन, कीडे के काटने से या चमडी सूखने से या
एक्जीमा, सोराइसिस जैसी बीमारियों की वजह से। ब्रेन ट्यूमर, जिगर की
बीमारी, एड्स जैसी बीमारियों से भी कई बार खुजली महसूस होती है।इसके अलावा
कई बार खुजली मनोवैज्ञानिक कारणों से भी होती है। कुछ लोगों में खुजलाने की
आदत, जुनून की हद तक होती है।
खुजलाने की ऐसी सनक चढती है कि वो कई बार अपना नुकसान तक कर बैठते हैं।खुजली महसूस होने पर लोग नाखूनों से खुजलाते हैं। वैज्ञानिक कहते हैं कि इससे उस खास जगह की तंत्रिकाएं शांत होती हैं क्योंकि खुजली एक तरह से हल्का दर्द है। जिसे लोग सहलाकर, खुजलाकर दूर करते हैं।
कई बार बर्फ लगाने या सेंकने से भी खुजली दूर हो जाती है। मगर कई बार दर्द की दवा खाने से खुजली होने भी लगती है।वैसे दर्द और खुजली में बुनियादी फर्क यह है कि दर्द होने की सूरत में हम उस चीज से दूर भागते हैं, जिसकी वजह से दर्द होता है। जैसे जलती हुई मोमबत्ती के करीब हाथ ले जाएंगे तो तकलीफ होगी। इसीलिए हम वहां से फौरन हाथ हटा लेते हैं। मगर खुजली में इसके उलट होता है। जहां खुजली होती है, वहां हमारा हाथ तुरंत पहुँच जाता है।
खुजलाने की ऐसी सनक चढती है कि वो कई बार अपना नुकसान तक कर बैठते हैं।खुजली महसूस होने पर लोग नाखूनों से खुजलाते हैं। वैज्ञानिक कहते हैं कि इससे उस खास जगह की तंत्रिकाएं शांत होती हैं क्योंकि खुजली एक तरह से हल्का दर्द है। जिसे लोग सहलाकर, खुजलाकर दूर करते हैं।
कई बार बर्फ लगाने या सेंकने से भी खुजली दूर हो जाती है। मगर कई बार दर्द की दवा खाने से खुजली होने भी लगती है।वैसे दर्द और खुजली में बुनियादी फर्क यह है कि दर्द होने की सूरत में हम उस चीज से दूर भागते हैं, जिसकी वजह से दर्द होता है। जैसे जलती हुई मोमबत्ती के करीब हाथ ले जाएंगे तो तकलीफ होगी। इसीलिए हम वहां से फौरन हाथ हटा लेते हैं। मगर खुजली में इसके उलट होता है। जहां खुजली होती है, वहां हमारा हाथ तुरंत पहुँच जाता है।
खुजली से तकलीफ के बजाय राहत महसूस
मतलब शरीर का वह हिस्सा हमारा ध्यान अपनी तरफ खींचने के लिए खुजली का अहसास
कराता है।ये कुदरती देन है हमें। इससे हम कई खतरों से खुद को बचा लेते
हैं। जैसे किसी कीडे के काटने से खुजली होगी, तो हम उस जगह को देखेंगे,
कीडे को हटाएंगे ताकि वह फिर न काट ले। ऐसे ही कोई झाड या कांटा हाथ या पैर
से छू जाए, तो फौरन खुजली महसूस होती है।
हम उस कांटे से बचने का तरीका निकालते हैं। असल में जब कोई कीडा हमें काटता है या कांटा चुभता है तो वहां से हिस्टामाइन नाम का केमिकल निकलता है। ये हमारी रीढ की हड्डी तक संदेश पहुंचाता है कि कुछ गडबड है। रीढ की हड्डी फौरन हाथ को निर्देश देती है उस जगह की खोज-खबर लेने के लिए। कई बार खुजलाने से काम चल जाता है।
वरना फिर रीढ की हड्डी ये परेशानी हमारे शरीर के हेड ऑफिस यानी दिमाग को रिपोर्ट करती है।वैसे खुजली, छुआछूत की बीमारी जैसी है। आसपास किसी को खुजलाते देखेंगे तो आपका हाथ भी खुद-ब-खुद चल पडता होगा कई बार। जैसे आसपास बैठे लोग झपकी लें तो आपको भी जम्हाई आने लगती है, ठीक वैसे ही। बंदरों में एक दूसरे को देखकर खुजलाने की आदत आम है। एक बार तो वैज्ञानिकों ने खुजली पर लेक्चर का आयोजन किया।
उसमें ज्यादातर लोग पूरे वक्त खुजलाते ही रहे। कई बार खुजली से तकलीफ के बजाय राहत महसूस होती है। 1948 में अमरीका की वॉशिंगटन यूनिवर्सिटी ने बाकायदा इस पर रिसर्च पेपर छापा जिसमें एक डॉक्टर जॉर्ज बिशप ने लिखा था कि खुजली होने पर वह कई बार खुद को जोर से खरोंचकर तकलीफ देते हैं। असल में उन्हें इससे राहत मिलती थी। यही वजह है कि कई बार आपके प्रिय परिजन जब आपकी पीठ खुजाते हैं तो आपको अच्छा लगता है। अमेरिकी कवि ओडगन नैश ने लिखा था, "खुशी वो अहसास है जो हर उस जगह खुजाने से महसूस होता है जहां खुजली होती है" खुशी की यह परिभाषा, शायद खुजली करने वालों के लिए थी। यानी हर इंसान के लिए।
हम उस कांटे से बचने का तरीका निकालते हैं। असल में जब कोई कीडा हमें काटता है या कांटा चुभता है तो वहां से हिस्टामाइन नाम का केमिकल निकलता है। ये हमारी रीढ की हड्डी तक संदेश पहुंचाता है कि कुछ गडबड है। रीढ की हड्डी फौरन हाथ को निर्देश देती है उस जगह की खोज-खबर लेने के लिए। कई बार खुजलाने से काम चल जाता है।
वरना फिर रीढ की हड्डी ये परेशानी हमारे शरीर के हेड ऑफिस यानी दिमाग को रिपोर्ट करती है।वैसे खुजली, छुआछूत की बीमारी जैसी है। आसपास किसी को खुजलाते देखेंगे तो आपका हाथ भी खुद-ब-खुद चल पडता होगा कई बार। जैसे आसपास बैठे लोग झपकी लें तो आपको भी जम्हाई आने लगती है, ठीक वैसे ही। बंदरों में एक दूसरे को देखकर खुजलाने की आदत आम है। एक बार तो वैज्ञानिकों ने खुजली पर लेक्चर का आयोजन किया।
उसमें ज्यादातर लोग पूरे वक्त खुजलाते ही रहे। कई बार खुजली से तकलीफ के बजाय राहत महसूस होती है। 1948 में अमरीका की वॉशिंगटन यूनिवर्सिटी ने बाकायदा इस पर रिसर्च पेपर छापा जिसमें एक डॉक्टर जॉर्ज बिशप ने लिखा था कि खुजली होने पर वह कई बार खुद को जोर से खरोंचकर तकलीफ देते हैं। असल में उन्हें इससे राहत मिलती थी। यही वजह है कि कई बार आपके प्रिय परिजन जब आपकी पीठ खुजाते हैं तो आपको अच्छा लगता है। अमेरिकी कवि ओडगन नैश ने लिखा था, "खुशी वो अहसास है जो हर उस जगह खुजाने से महसूस होता है जहां खुजली होती है" खुशी की यह परिभाषा, शायद खुजली करने वालों के लिए थी। यानी हर इंसान के लिए।
स्रोत :अमर उजाला
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